कोर्ट का आदेश, विधवा को नहीं मिलेगी पति की संपत्ति, अधिकार हो जाएगा समाप्त, पर कैसे जान लो ये

क्या पुनर्विवाह के बाद विधवा संपत्ति के अधिकार से वंचित हो सकती है? छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने दिया बड़ा निर्णय। पढ़ें, 1856 के हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम और 1956 के उत्तराधिकार कानून के बीच इस जटिल संपत्ति विवाद की पूरी कहानी

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Reported by Saloni Uniyal

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कोर्ट का आदेश, विधवा को नहीं मिलेगी पति की संपत्ति, अधिकार हो जाएगा समाप्त, पर कैसे जान लो ये
कोर्ट का आदेश, विधवा को नहीं मिलेगी पति की संपत्ति, अधिकार हो जाएगा समाप्त, पर कैसे जान लो ये

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी विधवा का पुनर्विवाह पूरी तरह सिद्ध हो जाता है, तो वह अपने दिवंगत पति की संपत्ति पर अधिकार खो देती है। यह फैसला न्यायमूर्ति संजय के अग्रवाल की एकल पीठ द्वारा सुनाया गया। मामले में अपीलकर्ता लोकनाथ द्वारा अपनी विधवा चाची किया बाई के खिलाफ दायर संपत्ति विवाद को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।

उच्च न्यायालय ने यह भी माना कि किया बाई और उनकी बेटी ने संपत्ति पर लगातार कब्जा बनाए रखा। 1956 में लागू हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत किया बाई घासी की संपत्ति की स्वामिनी बन गईं। इसके चलते लोकनाथ की अपील को खारिज कर दिया गया।

मामला: संपत्ति पर अधिकार और पुनर्विवाह का विवाद

यह विवाद किया बाई के दिवंगत पति घासी की संपत्ति से संबंधित है। घासी का निधन वर्ष 1942 में हुआ था। विवादित संपत्ति मूल रूप से सुग्रीव नामक व्यक्ति की थी जिनके चार बेटे थे: मोहन, अभिराम, गोवर्धन और जीवनधन। घासी, अभिराम का पुत्र था और किया बाई उसकी विधवा।

लोकनाथ, जो गोवर्धन का पुत्र था और अब जीवित नहीं है, ने दावा किया कि किया बाई ने 1954-55 में “चूड़ी प्रथा” के जरिए पुनर्विवाह किया था। इस प्रथा में किसी विधवा को चूड़ियां भेंट करके विवाह संपन्न माना जाता है। लोकनाथ का कहना था कि किया बाई के पुनर्विवाह के कारण उसे और उसकी बेटी सिंधु को संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलना चाहिए।

किया बाई का दावा: पुनर्विवाह नहीं हुआ

किया बाई और उनकी बेटी ने अदालत में यह स्पष्ट किया कि संपत्ति का बंटवारा घासी के जीवनकाल में ही हो गया था। घासी की मृत्यु के बाद भी वे संपत्ति पर काबिज रहीं और 1984 में किया बाई का नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज हो गया। उन्होंने दावा किया कि किया बाई ने कभी पुनर्विवाह नहीं किया और इस आधार पर मुकदमे को खारिज करने की मांग की।

निचली अदालत और अपीलीय अदालत के फैसले

निचली अदालत ने पहले माना था कि किया बाई और उनकी बेटी संपत्ति में हकदार नहीं हैं। हालांकि, पहली अपीलीय अदालत ने इस फैसले को पलट दिया। अपीलीय अदालत ने कहा कि संपत्ति का विभाजन घासी और उनके पिता अभिराम के जीवनकाल में हो गया था और किया बाई संपत्ति की मालिक बनी रहीं। 1956 में लागू हुए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत किया बाई को संपत्ति की पूर्ण स्वामित्व का अधिकार मिल गया।

उच्च न्यायालय का निर्णय: पुनर्विवाह के सबूत नहीं

मामले की दूसरी अपील छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में दायर की गई। सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किया बाई के पुनर्विवाह के कोई प्रमाण नहीं हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 की धारा 6 के तहत पुनर्विवाह के लिए सभी औपचारिकताओं का सिद्ध होना आवश्यक है। चूंकि लोकनाथ यह साबित करने में असफल रहा, इसलिए किया बाई का संपत्ति पर अधिकार समाप्त नहीं हुआ।

FAQs

1. छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने क्या फैसला सुनाया?
न्यायालय ने कहा कि विधवा का पुनर्विवाह पूरी तरह सिद्ध होने पर वह अपने दिवंगत पति की संपत्ति पर अधिकार खो देती है।

2. यह मामला किसकी संपत्ति से संबंधित था?
यह मामला घासी नामक व्यक्ति की संपत्ति से संबंधित था, जो अभिराम का पुत्र और किया बाई का दिवंगत पति था।

3. पुनर्विवाह का सिद्ध होना क्यों आवश्यक है?
हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 की धारा 6 के अनुसार, पुनर्विवाह को साबित करने के लिए सभी औपचारिकताओं का पूर्ण प्रमाण होना जरूरी है।

4. निचली अदालत और अपीलीय अदालत के फैसलों में क्या अंतर था?
निचली अदालत ने किया बाई और उनकी बेटी को संपत्ति में अधिकारहीन माना, जबकि अपीलीय अदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया।

5. क्या किया बाई ने पुनर्विवाह किया था?
उच्च न्यायालय ने पाया कि किया बाई के पुनर्विवाह के कोई स्वीकार्य सबूत नहीं हैं।

6. क्या किया बाई की संपत्ति पर अधिकार बना रहा?
हां, किया बाई का संपत्ति पर अधिकार बना रहा क्योंकि पुनर्विवाह के प्रमाण नहीं मिले और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत उन्हें स्वामित्व मिला।

7. चूड़ी प्रथा क्या है?
चूड़ी प्रथा एक पारंपरिक रीति है जिसमें विधवा को चूड़ियां भेंट कर विवाह संपन्न माना जाता है।

8. उच्च न्यायालय ने यह फैसला कब सुनाया?
यह फैसला 28 जून को सुनाया गया।

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