बन्दा सिंह बहादुर जीवनी – Biography of Banda Singh Bahadur in Hindi Jivani

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Reported by Rohit Kumar

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बन्दा सिंह बहादुर एक महान सेनापति और बहादुर योद्वा और दूरदर्शी नेता थे। इनका जन्म आज के कश्मीर के पुंछ जिले के राजौरी में 27 अक्टूबर 1670 ई को हुआ था। बचपन में बंदा सिंह का नाम उनके माता पिता के द्वारा वीर लक्ष्मण देव रखा गया था. बन्दा सिंह बहादुर एक हिन्दू राजपूत परिवार में पैदा हुये थे। इन्हें आगे चलकर बंदा बैरागी, बंदा सिंह बहादुर आदि नामों से भी पुकारा गया।

बन्दा सिंह बहादुर जीवनी - Biography of Banda Singh Bahadur in Hindi Jivani
बन्दा सिंह बहादुर जीवनी – Biography of Banda Singh Bahadur

बन्दा सिंह का प्रारंभिक जीवन

बालक वीर लक्ष्मण देव की आधिकारिक शिक्षा दीक्षा नहीं हुयी थी। किन्तु दुर्गम पहाडी क्षेत्र में निवास करने के कारण वे हष्ट पुष्ट और बलवान थे। बचपन से ही साहसी लक्ष्मण देव का जीवन एक घटना के बाद पूरी तरह से बदल गया।

हुआ ये कि एक बार लक्ष्मण देव शिकार करने के लिये जंगल में गये। वहां उन्होंने एक हिरनी का शिकार किया। हिरनी गर्भवती थी और हिरनी के बच्चे ने युवा लक्ष्मण देव के हाथों में ही दम तोड दिया। इस घटना ने बालक को अन्दर से झकझोर कर रख दिया और वे संन्यासी बन गये।

इसके बाद वे संत जानकी दास बैरागी के शिष्य बन गये और माधोदास बैरागी के नाम से जाने गये। कालान्तर में माधोदास बैरागी सिखों के दसवें गुरू, गुरू गोविन्द सिंह जी के सम्पर्क में आये और माधोदास बैरागी से बन्दा बैरागी हो गये।

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गुरू गोविन्द सिंह से मुलाकात

बंदा सिंह बहादुर कई मायनों में एक क्रांतिकारी विचारक थे। भारत के इतिहास में बहुत ही कम ऐसे लोग हुये हैं। जो कि बचपन में बैरागी हो गये हों और समय आने पर पुन सांसारिक जीवन में लौटे हों और बडे साहस से नेतृत्व प्रदान किया हो।

हिन्दू राजपूत परिवार में पैदा होने के कारण बंदा सिंह का संन्यासी जीवन शैव और वैष्णव मतानुसार चल रहा था। लेकिन गुरू गोविन्द सिंह से मुलाकात के बाद वे सांसारिक जीवन में फिर से लौटे और सिख सम्प्रदाय का नेतृत्व भी करने लगे।

बैरागी से बहादुर

गुरू गोविन्द सिंह ने बंदा बैरागी की प्रतिभा को पहचान लिया था। उन्होंने बैरागी से अपने संन्यास को त्यागने का अनुरोध किया। क्योंकि उस दौर में पंजाब में मुगलों का वर्चस्व था और मुगल आम लोगों पर अत्याचार करने के साथ साथ उन्हें जबरन मुस्लिम धर्म कबूल करने पर भी मजबूर करते थे।

बन्दा सिंह ने गुरू गोविन्द सिंह के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। गुरू ने उन्हें पंजाब प्रान्त को मुगलों के अत्याचार से छुटकारा दिलाने का कार्य सौंपा। कहा जाता है कि गुरू जी ने बंदा सिंह को एक तलवार, पांच तीर और तीन साथी दिये। इसके साथ ही बंदा सिंह को सिखों का नेतृत्व करने का आदेश भी गुरू गोविन्द सिंह के द्वारा बंदा सिंह को दिया गया।

पंजाब का अभियान

गुरू से आदेश पाने के बाद बन्दा सिंह अपने साथियों के साथ पंजाब की ओर कूच कर गये। यहां उनके पंजाब पंहुचते ही गुरू गोविन्द सिंह की चाकू मारकर हत्या कर दी गयी। गुरू के चले जाने के बाद पूरे सिख साम्राज्य की जिम्मेदारी बन्दा सिंह के कन्धों पर आ गयी।

इसी बीच मुगल बादशाह औरंगजेब की भी 1708 ई में मृत्यु हो चुकी थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुर शाह दिल्ली का बादशाह बना। लेकिन दक्षिण में काम बक्श ने बहादुर शाह की बादशाहत को स्वीकार नहीं किया और बादशाह के खिलाफ दक्षिण भारत से विद्रोह कर दिया।

दक्षिण में हुये इस विद्रोह को दबाने के लिये स्वयं बहादुर शाह को दक्षिण के अभियान पर जाना पडा। अब बादशाह दिल्ली से बाहर था। बन्दा सिंह ने इसे सिखों के लिये एक मौके के रूप में लिया और मुगलों से नाराज सैनिकों, किसानों और अन्य सूबेदारों को अपने साथ मिला लिया।

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जैसे जैसे बन्दा सिंह की सैन्य ताकत बढती गयी। वह मुगलों के खजाने को लूटने लगा। उसने सबसे पहले सोनीपत और कैथल में हमला करके मुगलों को कमजोर किया।

साहिबजादों का बदला

सोनीपत के हमले के अगले ही साल 1709 में बन्दा सिंह ने सरहिंद की ओर रूख किया। मुगल बादशाह ने सरहिंद का इलाका वजीर खां को सौंप रखा था। यह वही वजीर खां था जिसने कि गुरू गोविन्द सिंह के बेटे, चार साहिबजादों की हत्या की थी।

इस हमले का एक मुख्य कारण गुरू के बेटों की हत्या का बदला लेना भी था। 1710 ई तक बन्दा सिंह ने पूरे सरहिंद पर अपना कब्जा कर लिया था। वजीर खां को मौत के घाट उतार दिया गया।

बन्दा सिंह बहादुर का शासन

बन्दा सिंह ने सरहिंद के केन्द्र में लौहगढ को अपनी राजधानी घोषित कर दिया और यहीं से अपना शासन चलाने लगे। यहां से उन्होंने अपना रूख उत्तर की ओर किया और विद्रोह करते हुये लाहौर की सीमा तक अपना दबदबा बना लिया।

बहुत ही कम समय में बन्दा सिंह के नेतृत्व में लगभग पूरे पंजाब प्रान्त में सिखों का शासन स्थापित हो गया था। बहादुरी से सिखों का नेतृत्व करने के कारण बन्दा सिंह को बन्दा सिंह बहादुर कहा जाने लगा। उसने गुरू गोविन्द सिंह के सम्मान में उनके नाम से मोहरें और सिक्के भी जारी किये।

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मुगलों के साथ संघर्ष

बन्दा सिंह बहादुर बडी कुशलता पूर्वक सिखों का शासन चलाने लगे। इसी बीच मुगल बादशाह अपने दक्षिण के अभियान से लौटा तो उसके शासन की पूरी तस्वीर बदली हुयी थी। पंजाब बादशाह के हाथ से निकल गया था और आगे भी बन्दा सिंह बहादुर से चुनौती मिलने वाली थी।

उसने तुरंत सिखों पर हमला करने का आदेश दिया। सिख सेना की तादाद मुगल सेना के सामने बहुत कम थी। फिर भी दोनों के बीच भीषण युद्व हुआ। सिख सेना अधिक समय तक लौहगढ के किले का बचाव नहीं कर सकी और बन्दा सिंह रूप बदलकर बच निकलने में कामयाब हुये।

करीब दो साल तक बन्दा सिंह पंजाब से सटे हिमाचल किन्नौर और चंबा जिले की खाक छानते रहे। दो साल गुजरने के बाद बादशाह बहादुर शाह की भी मृत्यु हो गयी। बादशाह की मृत्यु के बाद दिल्ली के तख्त के लिये उसके बेटों के बीच विवाद होने लगा। मुगलों की इस आंतरिक कलह का फायदा उठाते हुये बन्दा सिंह ने सिखों को फिर से संगठित किया और लौहगढ पर फिर से कब्जा करने में कामयाब हुये।

दूसरा संघर्ष

मुगलों की आंतरिक कलह में फरूखसियर दिल्ली की गद्दी पाने में सफल हुआ। लेकिन नये मुगल बादशाह ने भी सिखों के बढते वर्चस्व को कुचलने का प्रयास किया। उसने अपनी सेना को किसी भी सिख व्यक्ति को तुरंत मार डालने का आदेश दिया और पूरी सेना को बन्दा बहादुर के साम्राज्य पर चढाई करने के लिये भेज दिया।

तगातार 03 साल चले अभियान में सिखों की सेना ने मुगल सेना का डटकर सामना किया लेकिन सिख सैनिकों की तादाद मुगलों की अपेक्षा कम होने से बन्दा सिंह की सेना को पीछे हटना पडा। पंजाब के गुरदासपुर के करीब बन्दा सिंह और उसके सैनिकों ने एक किले में शरण ली और किले को पूरी तरह से बंद कर दिया।

बन्दा सिंह पहले भी मुगलों के चंगुल से भाग चुके थे। इसलिये इस बार मुगलों ने किले पर चढाई नहीं की। बल्कि उन्होंने किले को बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया। उनके खाने और पानी की आवजाही पर रोक लगा दी। किसी तरह से घास फूस और घोडों और गधों का मांस खाकर बन्दा सिंह और सैनिकों ने 8 महीने किले के अन्दर गुजारे।

जब सारा राशन और अन्य साधन खत्म हो गये तो मजबूरन किले के दरवाजे खोलने पडे। किले के दरवाजे खुलते ही मुगल सेना किले पर टूट पडी और करीब 300 सिख सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। बन्दा सिंह बहादुर के साथ साथ तकरीबन 700 सैनिकों को बन्दी बना लिया गया। सैनिकों के कटे हुये सिरों और बंदियों को सरे बाजार घुमाया गया। इसके बाद बंदियों को बादशाह के पास दिल्ली लेकर जाया गया।

बन्दा सिंह बहादुर की शहादत

किले में बंदी सैनिकों और बन्दा सिंह को तरह तरह की यातनायें दी गयी। उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिये बेरहमी से प्रताडित किया गया। लेकिन सिखों ने इस्लाम कबूल नहीं किया। बादशाह ने एक एक करके सारे सैनिकों को मौत की सजा दी।

बन्दा सिंह बहादुर को भी इस्लाम कबूल करने के लिये कहा गया। जब बन्दा सिंह ने इनकार कर दिया तो उसके बेटे को बन्दा सिंह के सामने ही काट डाला गया। उसके बेटे के शरीर से उसका दिल निकालकर बन्दा सिंह के मुंह में ठूस दिया गया। लेकिन बन्दा सिंह इस्लाम कबूल करने को राजी नहीं हुये।

अन्त में बादशाह के आदेश पर 16 जून 1716 ई को बन्दा सिंह का सिर भी धड से अलग कर दिया गया। इस तरह बन्दा सिंह ने अपने नेतृत्व में सिखों में क्रांति की एक मशाल फूंक दी। जिसमें आगे चलकर मुगल साम्राज्य का पतन होना शुरू हो गया।

बन्दा सिंह की शहादत के कुछ समय के बाद ही मराठाओं ने मुगल साम्राज्य को जड से खत्म कर दिया। वहीं एक दूसरे महान सिख महाराजा रणजीत सिंह ने भी उत्तर भारत के विशाल भू भाग में अपना साम्राज्य खडा कर दिया।।

बन्दा सिंह बहादुर जीवनी से सम्बंधित प्रश्न-उत्तर

बंदा सिंह बहादुर का असली नाम क्या था?

बचपन में बंदा सिंह बहादुर को वीर लक्षमण देव के नाम से जाना जाता था।

बंदा बैरागी की मृत्यु कैसे हुई ?

मुग़ल बादशाह के आदेश पर बंदा सिंह बहादुर के शरीर को जगह जगह से दागा गया और उनका सर धड़ से अलग कर दिया गया।

बंदा सिंह बहादुर के बेटे का क्या नाम था?

बंदा सिंह बहादुर के बेटे अजय सिंह को उन्हीं के साथ शहीद कर दिया गया था।

बंदा सिंह बहादुर का जन्म कहाँ हुआ था?

बंदा सिंह बहादुर जन्म वर्तमान कश्मीर के पुंछ जिले के राजौरी में 27 अक्टूबर 1670 ई को हुआ था।

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