मीरा बाई के पद (दोहे) अर्थ सहित – Meera Bai Ke Pad with Meaning in Hindi

1498 में राजस्थान के कुड़की गांव में जन्मीं मीरा बाई, कृष्ण की भक्ति में लीन एक प्रसिद्ध संत-कवियित्री थीं। बचपन से ही भक्ति में रुचि रखने वाली मीरा का विवाह 1516 में मेवाड़ के राजा भोजराज से हुआ। दांपत्य जीवन में सास-बहू के मतभेद और राज-परिवार का विरोध सहन करने के बाद, मीरा ने द्वारका में कृष्ण की मूर्ति को अपना पति मानकर जीवन भक्ति में समर्पित कर दिया।

Photo of author

Reported by Rohit Kumar

Published on

मीरा बाई के पद (दोहे) अर्थ सहित - Meera Bai Ke Pad with Meaning in Hindi

मीरा बाई जो सोलहवीं शताब्दी में पैदा हुई एक कृष्ण भक्त और प्रसिद्ध कवयित्री थीं। आप सभी ने मीराबाई की रचनाओं में उनके दोहों के बारे में जरूर पढ़ा होगा। मीरा बाई (Meera Bai) ने अपना सम्पूर्ण जीवन भगवान कृष्ण की भक्ति में बिताया। अपने गुरु संत रविदास (रैदास) के साथ रहते हुए मीराबाई का मन सांसारिक मोह को त्याग कर कृष्ण प्रेम और कृष्ण भक्ति में रमता था।

दोस्तों आज के इस लेख हम मीराबाई के द्वारा रचित दोहों एवं पदों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी लेकर आये हैं। हमने अपने इस लेख में आपको मीरा बाई के दोहों का सन्दर्भ सहित भावार्थ समझाने का प्रयास किया है। मीराबाई के जीवन से हमें भगवान की भक्ति और भक्तिरस में डूबे रहने की प्रेरणा मिलती है। मीरा बाई के बारे में और अधिक जानने एवं समझने के लिए हम आपसे कहेंगे की आप हमारा यह आर्टिकल ध्यानपूर्वक अंत तक जरूर पढ़ें।

मीराबाई का संक्षिप्त जीवन परिचय (Biography):

पूरा नाम (full Name)मीरा बाई (Meerabai)
उपनाम राजस्थान की राधा, कृष्ण रमणा
जन्म (Birth)सन 1498 ईस्वी
उम्र (Age)49 वर्ष
जन्म स्थान (Birth Place)पाली, कुड़की ग्राम, मेड़ता (राजस्थान)
राजवंश (Dynasty)मेवाड़ का राजपूताना सिसोदिया परिवार
मीराबाई की माता जी का नाम (Mirabai Mother’s Name)वीर कुमारी
मीराबाई के पिता जी का नाम (Meerabai Father’s Name)राजा रतन सिंह राठौड़
मीराबाई के पति का नाम (Meerabai Spouse’s Name)मेवाड़ के महाराणा सांगा के बड़े पुत्र (राणा भोजराज सिंह)
प्रसिद्धि (Prominence)योगिनी, संत, कृष्ण भक्ति, भजन गायिका
धर्म (Religion)हिन्दू
पुत्र / पुत्री (Son and Daughter)नहीं
मृत्यु (Death)सन 1547 ईस्वी
मृत्यु स्थान (Death Place)रणछोड़ मंदिर डाकोर, द्वारिका (गुजरात)
मीरा बाई के पद (दोहे) अर्थ सहित - Meera Bai Ke Pad with Meaning in Hindi
मीरा बाई के पद (दोहे) अर्थ सहित

आपकी जानकारी के लिए बताते चलें की मीराबाई का जन्म पाली के कुड़की ग्राम (मेड़ता) में एक मध्य कालीन राजपूताना परिवार रतन सिंह राठौड़ के घर हुआ था। मीरा बाई की बचपन से कृष्ण भक्ति में बड़ी ही रुचि थी।

मीराबाई का विवाह चित्तौड़गढ़ के राजा राणा भोज राज सिंह के साथ हुआ था। शायद मीरा बाई की किस्मत में पति सुख नहीं लिखा था। विवाह के कुछ ही समय बाद स्वास्थ्य कारणों से मीराबाई के पति भोज राज सिंह का निधन हो गया। पुरातन परम्पराओं के अनुसार पति की मृत्यु के बाद पत्नी को पति की चिता के साथ सती होने की प्रथा थी।

व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp

इन्हीं पुरानी प्रथाओं के चलते मीराबाई को भी पति के साथ सती होने को कहा गया लेकिन मीराबाई से इसका घोर विरोध करते हुए चित्तौड़गढ़ छोड़ दिया। पति की मृत्यु ने मीराबाई को संसार से विरक्त कर दिया था मीराबाई के चित्तौड़गढ़ छोड़ने के साथ उनके बिना राजा भोजराज सिंह का अंतिम संस्कार कर दिया गया। पति के अंतिम संस्कार के बाद मीराबाई ने अपना श्रृंगार उतारकर एक संत योगिनी साधु का वेश धारण कर लिया और जगह-जगह साधू-संतों के साथ रहकर हरि भजन एवं कीर्तन करने लगी।

मीराबाई बचपन से श्री कृष्ण भगवान को अपना पति मानती थी। जिस कारण मीराबाई का अधिक से अधिक समय श्री कृष्ण की भक्ति में रमने लगा और मीराबाई की श्री कृष्ण से भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। कीर्तन एवं भजन करते हुए मीराबाई श्री कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचा करती थी। यह सब मीराबाई के राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था यह सब देखकर राज परिवार ने मीराबाई को विष का प्याला देकर मारने का प्रयास भी किया लेकिन श्री कृष्ण की कृपा से मीराबाई को कुछ नहीं हुआ।

अपने परिवार का यह व्यवहार देखकर मीराबाई घर छोड़कर श्री कृष्ण की खोज में द्वारका के वृन्दावन चली गई। यहीं पर मीराबाई का सारा जीवन कृष्ण भक्ति एवं कीर्तन करते हुए बीता।

यह भी पढ़े:

Meerabai द्वारा रचित रचनायें (Creations):

कृष्ण भक्ति में रमते हुए मीरा बाई ने निम्नलिखित रचनाएं की जो इस प्रकार से हैं –

  • नरसी जी का मायरा
  • मीरा पद्मावली
  • राग सोरठा
  • गोविंद टीका
  • राग गोविंद
  • गीत गोविंद

मीरा बाई के पद (दोहे) एवं उनके अर्थ:

मनमोहन कान्हा विनती करूं दिन रैन।
राह तके मेरे नैन।
अब तो दरस देदो कुञ्ज बिहारी।
मनवा हैं बैचेन।
नेह की डोरी तुम संग जोरी।
हमसे तो नहीं जावेगी तोड़ी।
हे मुरली धर कृष्ण मुरारी।
तनिक ना आवे चैन।
राह तके मेरे नैन
मै म्हारों सुपनमा।
लिसतें तो मै म्हारों सुपनमा।।

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त दोहे में मीरा बाई जी कहती हैं की वह कृष्ण दर्शन की प्रार्थना कर रही हैं। मीराबाई जी कहती हैं हे मेरे प्रभु कृष्ण मैं आपकी आने की राह देख रही हूँ। मेरे ये दो नैन आपके दर्शन की अभिलाषी हैं। मेरा यह प्रेम आपके साथ एक डोर से जुड़ चूका है जो मेरी मृत्यु होने के बाद भी नहीं टूटेगी। हे श्री कृष्ण मैंने आपको अपना सब कुछ मान लिया है। श्री कृष्ण जब तक आप मुझे दर्शन नहीं दे देते तब तक मुझे चैन नहीं मिलेगा। मुझ पर अपनी कृपा बरसाओ और मुझे दर्शन दे जाओ।

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो

वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु
किरपा कर अपनायो – पायो जी मैंने

जनम जनम की पुंजी पायी
जग मे साखोवायो – पायो जी मैंने

खर्चे ने खूटे चोर न लूटे
दिन दिन बढत सवायो -पायो जी मैंने

सत कि नाव केवाटिया सत्गुरु
भवसागर तर्वायो – पायो जी मैंने

मीरा के प्रभु गिरधर नागर
हर्ष हर्ष जस गायो – पायो जी मैंने

दोहे का भावार्थ: ऊपर लिखा गया दोहा एक भजन है जिसमें मीरा बाई कृष्ण भक्ति में डूबकर कहती हैं की मैंने कृष्ण भक्ति में रमते हुए प्रेम स्वरूप राम रत्न धन पा लिया है। दोहे के अगली पंक्ति में मीराबाई कहती हैं की मेरे गुरु श्री संत रविदास जी ने मुझ पर अपनी कृपा बरसा कर और कृष्ण भक्ति का ज्ञान देकर अमूल्य वस्तु मुझे भेंट की है। इस वस्तु के लिए मैंने अपना पूरा मन बना लिया है।

व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp

कृष्ण भक्ति को पाकर मुझे ऐसा लग रहा है की जैसे मुझे जन्मों से बस इसी का इंतज़ार था। यह वस्तु मुझे अनेक जन्म लेने के बाद प्राप्त होती पर अब लगता है की कृष्ण भक्ति में लगा मेरा यह जन्म ही सबसे मूल्यवान है। कृष्ण भक्ति रूपी धन की यह विशेषता है की ना ही इसे कोई चुरा सकता है और ना ही कभी यह घटता है। दिन-प्रतिदिन मेरा कृष्ण प्रेम धन बढ़ता ही जा रहा है। कृष्ण प्रेम का यह धन मुझे इस जन्म से मुक्ति अर्थात मोक्ष का मार्ग दिखा रहा है। अपने प्रभु गिरधर नागर श्री कृष्ण को पाकर मैं अति प्रसन्न हूँ। मेरे द्वारा लिखे गए इस दोहे में मैं अपने प्रभु कृष्ण का ध्यान लगाकर उनका गुणगान कर रही हूँ।

मतवारो बादल आयें रे
हरी को संदेसों कछु न लायें रे
दादुर मोर पपीहा बोले
कोएल सबद सुनावे रे
काली अंधियारी बिजली चमके
बिरहिना अती दर्पाये रे
मन रे परसी हरी के चरण
लिसतें तो मन रे परसी हरी के चरण

दोहे का भावार्थ: मीराबाई द्वारा रचित उपरोक्त भजन में मीरा बाई कह रही हैं की मेघ (बादल) गरजते हुए आ चुके हैं पर यह बादल मेरे प्रभु श्री कृष्ण का कोई संदेशा नहीं लाये। वर्षा ऋतु भी आ चुकी है और मोर अपने पंख फैलाकर नृत्य कर रहे हैं तथा कोयल अपनी मधुर आवाज़ में गीत गा रही है। मैं यह देख रही हूँ की आकाश में छाए काले बादलों से अंधियारा हो गया है और कड़कती हुई बिजली के कारण आसमान का कलेजा भी रोने लगा है। यह सम्पूर्ण दृश्य मेरी विरह की अग्नि को और बढ़ा रहा है। इस विरह में यह मेरी अंखियां हरी दर्शन की प्यासी हुई जा रही हैं।

भज मन! चरण-कँवल अविनाशी।
जेताई दीसै धरनि गगन विच, तेता सब उठ जासी।।
इस देहि का गरब ना करणा, माटी में मिल जासी।।
यों संसार चहर की बाजी, साझ पड्या उठ जासी।।
कहा भयो हैं भगवा पहरया, घर तज भये सन्यासी।
जोगी होई जुगति नहि जांनि, उलटी जन्म फिर आसी।।
अरज करू अबला कर जोरे, स्याम! तुम्हारी दासी।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर! काटो जम की फांसी।।

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त पद में मीराबाई कहती हैं की हे बावरे मन तू क्यों भटकता रहता है तू भगवन के चरणों का ध्यान करा कर। इस संसार में जो भी कुछ दिखाई दे रहा है उन सभी का एक दिन अंत होना निश्चित है। यह शरीर जो अपने ऊपर बेकार ही अभिमान करता रहता है यह भी एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। यह माया रूपी संसार चौसर के एक खेल की तरह है। इस खेल की बाज़ी हमारी मृत्यु के बाद खत्म हो जाती है। जैसे एक समय आने पर चौसर का खेल खत्म हो जाता है। उसी प्रकार यह माया रूपी संसार नष्ट हो जायेगा।

यदि हमें मेरे प्रभु श्री कृष्ण को प्राप्त करना है तो इसके लिए सिर्फ भगवा वस्त्र को धारण करना काफी नहीं। अगर हम पुरे दोहे के अर्थ को आसान शब्दों में समझे तो मीरा बाई कहती हैं की भगवान को प्राप्त करने के लिए सन्यासी बनना काफी नहीं अगर भगवान को प्राप्त करना है तो पुरे तन और मन से भगवान की भक्ति करनी होगी। नहीं बिना भगवान प्राप्त किये हमें बार-बार इस मोह-माया रूपी संसार में जन्म लेना होगा।

दरस बिनु दुखण लागे नैन।
जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहूँ न पायों चैन।।
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपे मीठे-मीठे बैन।
बिरह कथा कांसुं कहूँ सजनी, बह गईं करवत ऐन।।
कल परत पल हरि मग जोंवत भई छमासी रेण।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, दुःख मेटण सुख देण।।

दोहे का भावार्थ: मीराबाई उपरोक्त दोहे में कहती हैं की हे मेरे प्रभु गिरधर नागर , हे श्री कृष्ण आपके दर्शन हुए बहुत समय बीत चुका है और मेरी यह आंखें आपकी दर्शन की इच्छा को तरस रही हैं। आपके दर्शन की प्रतीक्षा में बाट जोहते हुए अब मेरी आँखों में पीड़ा होने लगी है। हे मेरे प्रभु जब से आप मुझसे अलग हुए हैं मुझे कहीं भी चैन नहीं मिल रहा है। जब भी कहीं कोई आहट होती है या कोई धीमी सी आवाज़ होती है तो ऐसा लगता है आप मुझसे मिलने आये हैं। यह सब होने से आपके दर्शन हेतु मेरा हृदय बहुत ही अधीर हो जाता है।

मेरे मुंह से अपने आप ही मीठे वचन निकलने लगते हैं। पीड़ा तो होती है पर मुंह से निकले शब्द कड़वे नहीं होते। मीरा अपना दुःख अपनी सहेली से साझा करती हुई कहती हैं की हे सखी मुझे भगवान से मिलने की बहुत पीड़ा हो रही है मैं किसको जाकर अपने मन की व्यथा सुनाऊँ। मैं ये सब तुम्हें बता रही हूँ फिर भी इसका कोई लाभ नहीं है। यह इतनी असहनीय पीड़ा है की यदि सोते हुए में यदि करवट बदलूँ तो भी कष्ट कम नहीं होता। हर पर मुझे भगवान श्री कृष्ण के दर्शन होने की प्रतीक्षा रहती है। प्रतीक्षा में लग रहा एक-एक पल का समय अब 6 महीने के बराबर लगता है।

बरसै बदरिया सावन की
सावन की मन भावन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की।।
उमड घुमड चहुं दिससे आयो,
दामण दमके झर लावन की।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै,
सीतल पवन सोहावन की।।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर,
आनन्द मंगल गावन की।।

दोहे का भावार्थ: मीराबाई कह रही है की मन को भाव विभोर और लुभाने वाली वर्षा ऋतु भी आ चुकी है और बादल भी बरसने लगे हैं। यह मनोरम दृश्य देखकर मेरा हृदय उमंग से भर उठा है। सखी इन सबसे मेरे मन में हरी कृष्ण के आने की संभावना जाग उठी है। बादल सभी दिशाओं से उमड़-घुमड़ कर आ रहे हैं। अब बहुत ही ज्यादा बिजलियाँ भी कड़क रही हैं। सावन की नन्हीं-नन्हीं बुदों की झड़ी लग चुकी है। बहती हुई ठंडी हवा मन को सुहा रही हैं। लग रहा है मेरे प्रभु गिरधर नागर आ रहे हैं। आओ सखी कृष्ण का अभिनंदन करने के लिए इस बेला पर हम मिलकर मंगल गान करें।

मै म्हारो सुपनमा पर्नारे दीनानाथ
छप्पन कोटा जाना पधराया दूल्हो श्री बृजनाथ
सुपनमा तोरण बंध्या री सुपनमा गया हाथ
सुपनमा म्हारे परण गया पाया अचल सुहाग
मीरा रो गिरीधर नी प्यारी पूरब जनम रो हाड
मतवारो बादल आयो रे
लिसतें तो मतवारो बादल आयो रे

दोहे का भावार्थ: मीरा बाई उपरोक्त दोहे में कहती हैं की मैं देख रही हूँ की मेरे प्रभु श्री कृष्ण दूल्हे राजा बनकर सर पर तोरण बांधकर आ रहे हैं। मैंने सपना देखा की श्री कृष्ण ने मेरे पैर छुए और श्री कृष्ण के मेरे पैर छूने से मैं सुहागन बनी।

ऐरी म्हां दरद दिवाणी
म्हारा दरद न जाण्यौ कोय
घायल री गत घायल जाण्यौ
हिवडो अगण सन्जोय।।
जौहर की गत जौहरी जाणै
क्या जाण्यौ जण खोय
मीरां री प्रभु पीर मिटांगा
जो वैद साँवरो होय।।

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त पद का अर्थ यह है की मीराबाई अपनी सखी से कह रही हैं की ऐ री सखी प्रभु श्री कृष्ण से मिलने की पीड़ा मुझे पागल कर जाती है। मेरी इस पीड़ा को मेरे प्रभु के अलावा दूसरा और कोई नहीं समझ सकता। क्योंकि पीड़ा का दर्द वही समझ सकता है जिसने पीड़ा को अपने ऊपर सहा हो और जो प्रभु से मिलने के प्रेम में घायल हुआ हो। मेरा मन तो अपने अंदर जैसे आग संजोए हुए है। जैसे एक असली रत्न की पहचान एक जौहरी कर सकता है। ठीक उसी तरह प्रेम की पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने किसी से प्रेम किया हो। मेरे मन की पीड़ा तभी शांत हो सकती है जब मेरे प्रभु मेरे सांवरे श्री कृष्ण वैद्य (चिकित्सक) बनकर मेरी पीड़ा को हरने मेरे पास चलें आएं।

नहिं भावै थांरो देसड़लो जी रंगरूड़ो॥
थांरा देसा में राणा साध नहीं छै, लोग बसे सब कूड़ो।
गहणा गांठी राणा हम सब त्यागा, त्याग्यो कररो चूड़ो॥
काजल टीकी हम सब त्याग्या, त्याग्यो है बांधन जूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बर पायो छै रूड़ो॥

पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥

पतीया मैं कैशी लीखूं, लीखये न जातरे॥
कलम धरत मेरा कर कांपत। नयनमों रड छायो॥
हमारी बीपत उद्धव देखी जात है। हरीसो कहूं वो जानत है॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल रहो छाये॥

पपइया रे, पिव की वाणि न बोल।
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज।
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त दोहे का अर्थ यह है की जिसमें मीराबाई कहती हैं की हे राणा जी आपका देश की संस्कृति , प्रथाएं मुझे अच्छे नहीं लगते। राणा जी आपके देश में कोई भी सच्चा साधू संत नहीं है। सभी लोग झूठे मक्कार और नाकारा हैं जो भक्ति का सिर्फ दिखावा करते हैं। मीराबाई आगे कहती हैं कृष्ण के प्रेम रस में डूबकर मैंने अब श्रृंगार करना छोड़ दिया है। खाने की सभी स्वादिष्ट वस्तुएं छोड़ दी है। मैंने अपने शरीर की चिंता भी छोड़ दी है। हे मेरे प्रभु गिरधर नागर मैंने पुरे मन से आपको अपना वर मान लिया है।

अगले पद में मीरा कहती हैं की मैं पैरों में घुंघरू बांधकर नाचती हूँ और मैं मेरे प्रभु गिरधर नागर की दासी हो गई हूँ। लोग मुझे अब पागल कहकर बुलाने लगे हैं। यहाँ तक की मेरे रिश्तेदार अब मुझे कुलनाशिनी कहकर बुलाने लगे हैं। मीराबाई आगे कहती हैं की राणा जी ने मेरे प्रेम को परखने के लिए मुझे विष का प्याला भेजा था लेकिन मैं प्रभु भक्ति में मगन वह विष का प्याला हँसते-हँसते पी गई। क्योंकि जो प्रभु भक्ति में लीन रहते हैं प्रभु हमेशा ही उनकी रक्षा करते हैं। मेरे प्रभु अविनाशी हैं और मैं उनकी परम भक्त हूँ।

मैं अपने प्रभु को पत्र कैसे लिखूं क्योंकि पत्र लिखने के लिए जैसे कलम उठाती हूँ तो मेरे हाथ कांपने लगते हैं मेरे आँखों में आंसू छलक पड़ते हैं। बीती बातों को याद कर मैं रोने लगती हूँ। और मुझे पत्र लिखने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि मेरे प्रभु मेरी पीड़ा और मेरी स्थिति के बारे में सब कुछ जानते हैं।

दोहे के अंतिम पद में मीराबाई कहती हैं की हे पपीहा! तू काहे रो रहा है तू राग मत अलाप। मैं प्रेम की मारी तेरी फ़रियाद सुनकर तेरे पंखों को मरोड़ दूंगी और तेरी चोंच काटकर उससे बनने वाले जख्म पर नमक छिड़क दूंगी। मेरे श्री कृष्ण को तू पिया कहने वाली तू कौन होती है। श्री कृष्ण मेरे पिया हैं और सिर्फ मैं ही उन्हें पिया बुला सकती हूँ दूसरा कोई नहीं। लेकिन पपीहा तेरा पिया-पिया कहना भी मुझे सुनने में सुहाना लगता है। यदि आज मेरे प्रभु मुझे मिल जाएँ तो मैं सोने से तेरी चोंच को रत्न जड़ित कर दूँ , प्रभु के मिलने की खुशी में मैं तुझे अपने सर का ताज बना लूँ। मैंने अपने प्रभु से मिलने के लिए बहुत से पत्र लिखे लेकिन मेरे प्रभु मुझसे मिलने नहीं आये। हे काग यह ले मेरा पत्र और उड़कर जा और मेरे प्रभु से मेरा हाल बता की मैंने खाना-पीना सब छोड़ दिया। मेरे प्रभु के बिना में जीवित नहीं रह सकती।

राणाजी म्हें तो गोविंद का गुण गास्याँ।
चरणामृत को नेम हमारो नित उठ दरसण जास्याँ॥
हरि मंदिर में निरत करास्याँ घुँघरियाँ घमकास्याँ।
राम नाम का झाँझ चलास्याँ भव सागर तर जास्याँ॥
यह संसार बाड़ का काँटा ज्याँ संगत नहिं जास्याँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्याँ॥

दोहे का भावार्थ: ऊपर लिखे गए पद में मीरा बाई कहती हैं की राणा जी मैं हमेशा ही मेरे प्रभु कृष्ण गोविन्द के गुण गाउँ। प्रभु के दर्शन मेरे लिए एक तरह से चरणा मृत के समान है। मैं नित दिन प्रतिदिन हरी मंदिर जाऊं और राम नाम और कृष्ण नाम का जाप करूँ ताकि इस जीवन रूपी भव सागर से पार हो जाऊं। यह संसार एक कांटे के समान है। जैसे किसी कांटे के चुभ जाने पर शरीर में पीड़ा होती है ठीक उसी तरह बिना प्रभु के दर्शन के यह जीवन पीड़ादायक है। हे मेरे प्रभु गिरधर नागर मेरे गुणों को परखकर मुझे दर्शन दें।

फूल मंगाऊं हार बनाऊ। मालीन बनकर जाऊं॥
कै गुन ले समजाऊं। राजधन कै गुन ले समाजाऊं॥
गला सैली हात सुमरनी। जपत जपत घर जाऊं॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। बैठत हरिगुन गाऊं॥

दोहे का भावार्थ: मीराबाई कह रही हैं की एक-एक फूल को चुनकर उन्हें गूथकर अपने प्रभु के लिए माला एवं हार बनाऊं। प्रभु की माला हेतु राजधन का उपयोग करना चाहती हूँ पर यह राणा जी को कैसे समझाऊँ। प्रभु के गले के लिए माला बनाने हेतु उनका नाम जपते हुए फूलों को मैं घर-घर जाकर मांग रही हूँ। मीरा कहती हैं की हे मेरे प्रभु मैं बैठकर आपके ही गुण गाती रहती हूँ।

हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर।।

भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर।।
बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर।
दासि ‘मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर।।

दोहे का भावार्थ: इस दोहे में मीराबाई कह रही हैं की हे मेरे गोविन्द, हे मेरे श्री कृष्ण आप मेरे और सभी लोगों के संकट दूर करें। जैसे आपने महाभारत काल में कौरव और पांडवों के सामने द्रौपदी की लाज रखी। आप द्रौपदी की लाज बचाने के लिए उसके चीर को बढ़ाते गए। जैसे आपने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु नरसिंह का अवतार धरा और हिरण्य कश्यप का वध किया। ठीक वैसे ही आपने पानी में डूबते हुए एक हाथी की रक्षा की। हे प्रभु ठीक उसी तरह अपनी दासी मीरा के दुखों को दूर करो।

माई री! मै तो लियो गोविन्दो मोल।
कोई कहे चान, कोई कहे चौड़े, लियो री बजता ढोल।।
कोई कहै मुन्हंगो, कोई कहे सुहंगो, लियो री तराजू रे तोल।
कोई कहे कारो, कोई कहे गोरो, लियो री आख्या खोल।।
याही कुं सब जग जानत हैं, रियो री अमोलक मोल।
मीराँ कुं प्रभु दरसन दीज्यो, पूरब जन्म का कोल।।

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त दोहे में मीरा बाई अपनी सखी से कहती हैं की हे सखी मैंने अब कृष्ण भगवान को मोल ले लिया है। कोई प्रभु को प्रियतम बता कर कहता है मैंने उन्हें पा लिया है। कोई कहता है की मैंने सभी के सामने अपने प्रेम को व्यक्त कर प्रभु पा लिया है। हे सखी मैं कहना चाहती हूँ की मैं सबके सामने ढोल बजाकर कहना चाहती हूँ की मैंने मेरे प्रभु को प्राप्त कर लिया है। इसके बाद भी कोई कहता है की मैंने यह सौदा बहुत महंगा कर लिया तो कोई कहता है की यह सौदा बहुत सस्ता कर लिया। हे सखी मैंने तो सभी गुण और अवगुणों को तोलकर देख लिया है। कोई मेरे प्रभु को काला तो कोई गोरा बताता है। मैंने तो कृष्ण को कृष्ण समझकर ही उनसे प्रेम किया है।

यह भी देखेंहिंदी व्यंजन, परिभाषा, भेद और सम्पूर्ण वर्गीकरण

हिंदी व्यंजन, परिभाषा, भेद और सम्पूर्ण वर्गीकरण

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई। 
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई।। 

दोहे का भावार्थ: इस दोहे में मीराबाई अपने पति राणा जी से मैंने श्री कृष्ण को अपना पति मान लिया है। मेरे लिए तो मेरे श्री कृष्ण हैं। मैं आपसे कहना चाहती हूँ की मेरे प्रभु ने गिरधर पर्वत को अपनी छोटी सी उंगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया है। श्री कृष्ण के अलावा में किसी को भी अपना नहीं मानती हूँ। जिनके सर पर मोर पंख शोभायमान है वहीं मेरे पति हैं।

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई।।

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त व्यक्त किये गए पद (दोहे) में कवयित्री मीरा बाई कहती हैं की इन माया रूपी संसार में ना तो मेरे पिता हैं और ना हीं मेरी माता हैं और ना ही कोई रिश्तेदार एवं ना ही भाई-बहन हैं। मेरे तो बस मेरे गिरधर गोपाल हैं। मैंने मेरे प्रभु श्री कृष्ण को अपना सब कुछ मान लिया है।

अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऐसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऐसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऐसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

दोहे का भावार्थ: इस पद में मीराबाई ने अपने और श्री कृष्ण के प्रेम की तुलना त्रेता युग के शबरी और राम से की है। जैसे शबरी ने राम भक्ति में लीन होकर वर्षों तक श्री राम का इंतज़ार किया। जब श्री राम शबरी से मिले तो शबरी द्वारा प्रेम पूर्वक दिए गए झूठे बेर श्री राम ने खाये। शबरी श्री राम को बेर चखकर इसलिए दे रही थी की कहीं प्रभु खराब और सड़े हुए बेर ना खा लें। ऐसी भक्ति आज के समय में कहाँ देखने को मिलती हैं। रामायण का यह संदर्भ हमें बताता है की कैसे एक छोटी जाति , बूढ़ी और कुरूप सी दिखने वाली स्त्री के भक्ति रस में डूबकर भगवान श्री राम ने झूठे बेर खाये। हे मेरे प्रभु श्री कृष्ण जैसे शबरी पर श्री राम ने कृपा बरसाई ठीक आप वैसे ही मुझ पर अपनी कृपा बरसाइये। मुझे जीवन भर आपकी दासी बनकर आपकी सेवा करने का मौक़ा दें। उस भीलनी शबरी के समान मुझ पर भी अपने चरणों की कृपा बरसाएं भगवान।

बसो मोरे नैनन में नंद लाल।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक दिये भाल।
मोहनि मूरति सांवरी सुरति, नैना बने बिसाल।
अधर सुधा-रस मुरली राजति, उर बैजंती माल।
छुद्र घंटिका कटि तट शोभित, नुपूर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुख दाई, भक्त बछल गोपाल ।

दोहे का भावार्थ: मीराबाई उपरोक्त पद में कहती हैं की हे मेरे प्रभु मेरे श्री कृष्ण तुम सदा ही मेरे नैनों में निवास करते हो। तुम्हारा यह रूप सदा ही मेरी आँखों में बसा रहता है। आपके इस रूप में सर पर मोर मुकुट और कानों में स्वर्ण मकरा कुण्डल शोभायमान है। आपके ललाट पर लाल रंग का तिलक लगा हुआ है। सांवली सी सूरत और उस पर आपके ये दो बड़े-बड़े नैन आपके रूप के सौंदर्य को और बढ़ा रहे हैं। आपका पूरा यह रूप बहुत ही मनमोहक है। हे कृष्ण आपके होंठों पर जो यह मुरली है और यह अमृत रस बरसा रही है। यह आपके होंठों पर शुशोभित है। कृष्ण आपके वक्ष पर धारण की हुई बैजंती माला बहुत ही सुन्दर लग रही है।

श्री कृष्ण ने जो कमर पर छोटी सी घंटी धारण की है और पैरों में जो घुंघरू पहने हैं वह मधुर ध्वनि उत्पन्न करते हैं। मीराबाई आगे कहती हैं की आपका यह रूप हम संतों को सुख देने वाला है। इसी रुप के कारण आपके भक्त आपसे प्रेम करते हैं।

मीरा मगन भई, हरि के गुण गाय।
सांप पेटारा राणा भेज्या, मीरा हाथ दीयों जाय।
न्हाय धोय देखण लागीं, सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या, अमरित दीन्ह बनाय।

न्हाय धोय जब पीवण लागी, हो गई अमर अंचाय।
सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो मीरा सुवाय।

दोहे का भावार्थ: इस दोहे में मीराबाई कहती हैं की मैं कृष्ण भक्ति में डूबकर हमेशा ही कृष्ण के गुणों का गुणगान करती हूँ और भजन करते हुए मगन हो जाती हूँ। मेरी कृष्ण भक्ति से परेशान होकर राणा जी ने सांप को पिटारे में बंद करके मेरे पास भेजा है और अपने सेवकों से कहा है की यह पीटारा मीराबाई के हाथ में देना। लेकिन सखी जब मैंने पिटारा खोलकर देखा तो वह सांप एक शालिग्राम की मूर्ति में बदल गया। इतना ही नहीं इसके बाद राणा जी ने मेरे लिए जहर का प्याला भेजा पर हे सखी भगवान की कृपा देखो वह जहर से भरा प्याला अमृत बन गया। और जब मैंने उस प्याले को पिया तो मैं अमर हो गई। राणा जी तो यहाँ भी ना रुके मेरे सोने के लिए उन्होंने काँटों की सेज बनाई और मुझे कहा तुम इसमें सो जाओ। हे सखी जब मैं उस सेज पर सोने गई तो वह मेरे प्रभु गिरधर नागर की कृपा से फूलों की सेज बन गई। मीराबाई दोहे में आगे कहती हैं की श्री कृष्ण ने हमेशा ही मेरी सहायता की है और मेरे कष्टों को दूर किया है। इसलिए मैंने अपना जीवन श्री कृष्ण के चरणों में न्योछावर कर दिया है।

ऊँचा, ऊँचा महल बणावं बिच बिच राखूँ बारी।
साँवरिया रा दरसण पास्यूँ, पहर कुसुम्बी साई।
आधी रात प्रभु दरसण, दीज्यो जमनाजी रा तीरां।
मीरां रा प्रभु गिरधर नागर, हिवड़ो घणो अधीराँ।

दोहे का भावार्थ: उपरोक्त लिखे गए पद में मीराबाई कहती हैं की मुझे हरी दर्शन की बहुत ही तीव्र इच्छा है। उपरोक्त पद में मीराबाई श्री कृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए कहती हैं की मैं श्री कृष्ण के पधारने पर ऊँचे-ऊँचे महलों में बाग़ लगाउंगी। मैं पूरा साज-श्रृंगार करुंगी। मैं कुसुम्बी रंग की साड़ी पहनकर श्री कृष्ण के दर्शन करूंगी। मुझे लगता है भगवान भी मुझे मिलने के लिए उतने ही व्याकुल हैं जितना मैं उनसे मिलने के लिए हूँ। मैं चाहती हूँ यमुना नदी के तट पर श्री कृष्ण मुझे दर्शन देकर मीरा सारी पीड़ा को हर लें।

हे री मैं तो प्रेम दिवानी, मेरा दरद न जाने कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी, किस बिध सोना होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की, किस बिध मिलना होय॥
घायल की गति घायल जानै, कि जिन लागी होय।
जौहरी की गति जौहरी जाने, कि जिन लागी होय॥
दरद की मारी बन बन डोलूँ वैद मिल्यो नहीं कोय।
मीरां की प्रभु पीर मिटै जब वैद सांवलया होय॥

दोहे का अर्थ: मीराबाई अपनी सखी से कह रही हैं की हे सखी मैं तो कृष्ण के प्रेम में इस तरह दीवानी हो गई हूँ की कोई भी मेरा दर्द नहीं समझेगा। मेरी सेज तो सूली है और किसी को सूली की सेज पर नींद कैसे आ सकती है। परन्तु मेरे प्रभु की सेज तो यह सारा आसमान है। मैं नहीं जानती की मेरे प्रभु से मेरी मुलाकात कैसे होगी। एक घायल व्यक्ति की पीड़ तो दुसरा घायल व्यक्ति ही जान सकता है। जैसे की एक हीरे की पहचान एक जौहरी ही कर सकता है। मैं तो दर्द के मारे जंगल-जंगल फिर रही हूँ। मुझे मेरा उपचार करने वाला कोई नहीं मिल रहा है। मीरा का दर्द उसी समय ही समाप्त होगा जब मुझे मिलने मेरे प्रभु सांवले-सलोने कृष्ण आएंगे और मेरा इलाज करेंगे।

जोगी मत जा मत जा मत जा, पाइं परूँ मैं चेरी तेरी हौं।
प्रेम भगति कौ पैड़ो ही न्यारो हम कूँ डौल बता जा।
अगर चंदण की चिता बनाऊँ अपणे हाथ जला जा॥
जल बल भई भस्म की ढेरी अपणे अंग लगा जा।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर जोत में जोत मिला जा॥

दोहे का भावार्थ: मीराबाई दोहे में कह रही हैं की देख जोगी तू मत जा। हे जोगी मैं तेरी दासी हूँ और तेरे पैरों पर पड़ती हूँ। यह प्रेम-पूजा एक अलग ही राह है। हे जोगी इस राह पर चलने का तरीका क्या है तू मुझे बता दे। अगर मैं कभी चंदन की चिता बनाऊं तो तुम ही उसे अपने हाथ से जलाना। और जब मैं जलकर राख की ढेर हो जाऊं तो तुम मुझे अपने अंग से लगा लेना। मीरा यही चाहती है की मेरे प्रभु गिरधर नागर तुम मुझे अपनी प्रेम जोत में मिला लो।

जोगिया री प्रीतड़ी है दुखड़ा री मूल।
हिलमिल बात बणावट मीठी पाछे जावत भूल॥
तोड़त जेज करत नहिं सजनी जैसे चमेली के मूल।
मीरा कहे प्रभु तुमरे दरस बिन लगत हिवड़ा में सूल॥

दोहे के भावार्थ: हे जोगी यह प्रेम की रीत और यह प्रीत सभी दुखों का मूल कारण है। यह जोगी और साधू संत हमसे हिल-मिलकर अपनी मीठी-मीठी बातें बनाते हैं लेकिन बाद में यह सभी बातें भूल जाते हैं। यह प्रेम को आसानी से तोड़ देते हैं जैसे कोई डाल में लगा चमेली का फूल तोड़ता है। मीरा अपने दोहे की अगली पंक्ति में कहती हैं की हे प्रभु तुम्हारे दर्शन के बिना मेरे दिल में कांटे चुभते हैं।

कोई कहियौ रे प्रभु आवन की।
आवन की मन भावन की॥
आप न आवै लिख नहिं भेजै बाण पड़ी ललुचावन की।
ए दोउ नैण कहयो नहीं मानै नदिया बहैं जैसे सावन की॥
कहा करूँ कछु नहिं बस मेरो पाँख नहीं उड़ जावन की।
मीरा कहै प्रभु कब रे मिलोगे चेरी भई हूँ तेरे दाँवन की॥

दोहे का भावार्थ: मीराबाई इस दोहे में कह रही हैं की कोई तो मुझे ऐसी खुश खबरी दे दे आज मेरे प्रभु मुझसे मिलने आ रहे हैं। कोई तो यह दिल खुश करने वाली खबर सूना दे। हे प्रभु ना ही आप आते हैं और ना ही आप कोई पत्र भेजकर इसकी कोई सुचना देते हैं। मुझे ऐसी आदत पड़ चुकी है मेरे ये दो नैन हमेशा ही आपके दर्शन को ललचाते रहते हैं। ये मेरी आँखें मेरा कहा नहीं मानती हैं। हे प्रभु अब मेरे ऊपर मेरा बस नहीं चलता। मेरे पास तो पक्षियों के जैसे पंख भी नहीं है की मैं उड़कर आपके पास पहुँच जाऊं। हे मेरे प्रभु आप मुझसे कब मिलेंगे मैं आपके पेंच में पूरी तरह फस गयी हूँ।

लगी मोहि राम खुमारी हो।
रमझम बरसै मेहंड़ा भीजै तन सारी हो॥
चहूँदिस चमकै दामणी गरजै घन भारी हो।
सत गुरु भेद बताइया खोली भरम किवारी हो॥
सब घट दीसै आतमा सबही सूँ न्यारी हो।
दीपग जोऊँ ग्यान का चढूँ अगम अटारी हो।
मीरा दासी राम की इमरत बलिहारी हो॥

दोहे का भावार्थ: हे मेरे प्रभु मैं अब राम-नाम के नशे में चूर हो चुकी हूँ। बाहर हल्की-हल्की रिमझिम पानी बरस रहा है और मेरा शरीर और मेरी साड़ी इस बारिश में पूरी तरह से भीग गई हैं। चारों ओर बहुत तेज बादल गरज रहे हैं और बिजली कड़क रही है। आज मेरे सतगुरु ने सभी भ्रम के दरवाजों को खोलकर मुझे खुशहाल जीवन जीने की रहस्य की बात बता दी है।आज तो हर शरीर में परमात्मा के दर्शन हो रहे हैं पर फिर भी सभी आत्माएं अपने शरीर से अलग हो रही हैं। आज ज्ञान का दिव्य प्रकाश मेरे आँखों के सामने छा गया है। मीरा आगे दोहे में कहती हैं की राम की अमृत वाणी पर मैं पूर्ण रूप से बलिहारी हो गई हूँ।

मैं गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ॥
रैण पड़ै तब ही उठ जाऊँ भोर भये उठ आऊँ।
रैण दिना वा के संग खेलूँ ज्यूँ त्यूँ ताही रिझाऊँ॥
जो पहिरावै सोई पहिरूँ जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उण की प्रीत पुराणी उण बिन पल न रहाऊँ॥
जहाँ बैठावें तितही बैठूँ बेचै तो बिक जाऊँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार-बार बलि जाऊँ॥

दोहे के भावार्थ: उपरोक्त पद में मीराबाई कहती हैं की मैं आज गिरधर के घर जा रही हूँ। इस जीवन में मेरे प्रभु ही मेरे सच्चे प्रियतम हैं। मेरे प्रभु को देखकर मेरा मन खुश हो जाता है। रात होते ही मैं अपने प्रभु से मिलने चली जाती हूँ। मैं शाम-सुबह और रात-दिन अपने प्रभु के साथ खेलती हूँ। मैं हर तरह से उन्हें रिझाने की कोशिश करती हूँ। मेरे प्रभु जो वस्त्र देते हैं वही मैं पहनती हूँ , जो वह प्रसाद के रूप में देते हैं वही मैं खाती हूँ। मेरे प्रभु से मेरा प्रेम बहुत ही पुराना है। मैं अपने प्रभु के बिना मैं एक पल भी जीवित नहीं रह सकती। मेरे प्रभु मुझे जहाँ बिठाएंगे वहीं बैठ जाउंगी। मेरे प्रभु अगर मुझे बेचेंगे तो मैं बिक जाउंगी। मैं अपने प्रभु पर बार-बार कुर्बान होना चाहती हूँ।

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई।
साधाँ संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
संत देख दौड़ि आई, जगत देख रोई।
प्रेम आँसू डार-डार अमर बेल बोई॥
मारग में तारण मिले संत नाम दोई।
संत सदा सीस पर नाम हृदै सब होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दासि मीरा लाल गिरधर, होई सो होई॥

दोहे के भावार्थ: इस संसार में मेरे प्रभु गिरधर नागर के अलावा मेरा कोई नहीं है। मेरे प्रभु के अलावा मैं किसे अपना कहूं। मैंने मेरे प्रभु के लिए अपने मां-बाप , भाई-बहन, रिश्तेदार सभी को छोड़ दिया है। गुरुओं ,संत और साधुओं के साथ बैठकर मैंने सभी तरह की शर्म-हया छोड़ दी है। जहाँ भी कोई संत दिखाई दिया तो उसी के साथ हो ली लेकिन जब मैं दुनिया के सामने आई तो लोगों के झूठे आरोपों के कारण रोने लगी। हे प्रभु मैंने अपने प्रेम को आपकी भक्ति की अमरबेल से सींचा है। मैंने संतों का सम्मान किया है। मैं हमेशा ही अपने प्रभु का नाम माला लेकर जपती रहती हूँ। अब यह बात पुरे संसार में फ़ैल चुकी है की मैं अपने प्रभु श्री कृष्ण की दासी बन चुकी हूँ। मेरा अब जो भी होगा देखा जाएगा।

म्हाँरे घर आज्यो प्रीतम प्यारा तुम बिन सब जग खारा।
तन मन धन सब भेंट करूँ जो भजन करूँ मैं थाँरा।
तुम गुणवंत बड़े गुण सागर मैं हूँ जी औगणहारा॥
मैं त्रिगुणि गुण एक नाहीं तुझमें जी गुण सारा।
मीरा कहे प्रभु कबहि मिलोगे बिन दरसण दुखियारा॥

दोहे के भावार्थ: हे मेरे प्रभु मेरे प्रीतम प्यारे आप मेरे घर पधारें। आपके बगैर सारा संसार बेकार लगता है। मैं आप पर अपना तन-मन-धन सब लुटा चुकी हूँ। मैं हमेशा ही आपका भजन करूंगी। आप गुणों के सागर हो और मैं आपका गुणगान करती हूँ। मुझमें भले ही लाखों बुराइयां हों लेकिन मैं निर्गुणी आप पर ही बलिहारी हूँ। मेरे प्रभु मैं आपसे कब मिलूंगी आपके दर्शन के बगैर मैं बहुत दुखी हूँ।

प्रभु जी तुम दर्शन बिन मोय घड़ी चैन नहीं आवड़े।।टेक।।

अन्न नहीं भावे नींद न आवे विरह सतावे मोय।
घायल ज्यूं घूमूं खड़ी रे म्हारो दर्द न जाने कोय।।1।।

दिन तो खाय गमायो री, रैन गमाई सोय।
प्राण गंवाया झूरता रे, नैन गंवाया दोनु रोय।।2।।

जो मैं ऐसा जानती रे, प्रीत कियाँ दुख होय।
नगर ढुंढेरौ पीटती रे, प्रीत न करियो कोय।।3।।

पन्थ निहारूँ डगर भुवारूँ, ऊभी मारग जोय।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, तुम मिलयां सुख होय।।4।।

दोहे के भावार्थ: हे प्रभु! आपके दर्शन के बिना मेरे लिए एक घड़ी भी चैन नहीं है। मुझे भूख नहीं लगती, नींद नहीं आती, और विरह मुझे सताता है। मैं एक घायल हिरण की तरह घूमती रहती हूँ, और मेरा दर्द कोई नहीं समझता। मैंने दिन खाने-पीने में गंवा दिए, और रातें सोने में गंवा दीं। मैंने अपने प्राणों को तरसने में गंवा दिए, और मेरी दोनों आंखें रोते-रोते सूज गईं हैं। यदि मैं पहले से जानती होती कि प्रेम में इतना दुःख होता है, तो मैं कभी प्रेम नहीं करती। मैं पूरे शहर में घूम-घूमकर लोगों को पीटती हूँ और उनसे कहती हूँ कि वे कभी प्रेम न करें। मैं रास्तों को देखती हूँ, गलियों में घूमती हूँ, और रास्ते पर खड़ी होकर आपके दर्शन की प्रतीक्षा करती हूँ। हे प्रभु! आप कब मिलेंगे? आपके मिलने से ही मुझे सुख मिलेगा।

Meera Bai से जुड़े प्रश्न एवं उत्तर (FAQs):

मीराबाई के पति का क्या नाम था ?

मीराबाई के पति का नाम राणा भोजराज सिंह था।

राजस्थान की राधा किसे कहा जाता है ?

मीराबाई को उनकी कृष्ण भक्ति के कारण राजस्थान की राधा नाम दिया गया।

मीराबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ ?

मीराबाई का जन्म सन 1498 ईस्वी में राजस्थान के पाली के कुड़की ग्राम में हुआ था।

मीराबाई द्वारा रचित कुछ प्रमुख रचनाओं के नाम बताइये ?

मीराबाई द्वारा रचित कुछ प्रमुख रचनाओं के नाम इस प्रकार से है –
मीरा वाणी
राग सोरठा
गोविंद टीका
राग गोविंद
गीत गोविंद

मीराबाई की रचनाओं में किस बोली की झलक देखने को मिलती है ?

राजस्थान और वृंदावन में रहने के कारण मीराबाई की रचनाओं में राजस्थानी और ब्रजभाषा की झलक देखने को मिलती है।

Meerabai के चाचा जी का क्या नाम था ?

मीराबाई के चाचा जी का नाम वीरमदेवजी था जो मेड़ता के राजा थे।

यह भी देखेंMP GK – मध्य प्रदेश सामान्य ज्ञान (Madhya Pradesh General Knowledge)

MP GK – मध्य प्रदेश सामान्य ज्ञान (Madhya Pradesh General Knowledge)

Photo of author

1 thought on “मीरा बाई के पद (दोहे) अर्थ सहित – Meera Bai Ke Pad with Meaning in Hindi”

Leave a Comment

हमारे Whatsaap ग्रुप से जुड़ें